Rang-e-Ghazal

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Ghazal

Rang-e-Ghazal

Ghazal is the most popular genre of Urdu poetry. The proof of the popularity of Ghazal is that it is being sung not only in Urdu but in almost all the languages of India. The special feature of the Ghazal is that it fully represents the civilization and culture of India. The magic of ghazal is that ghazal singing is enjoyed even by those who are not familiar with the Urdu language and Urdu script. Ghazal crossed the boundaries of countries, regions and languages and made a home in the hearts of the subcontinent, especially Indians. Ghazal singing has its own wonderful tradition in the field of music.

pyaar kā pahlā ḳhat likhne meñ vaqt to lagtā hai na.e parindoñ ko uḌne meñ vaqt to lagtā hai

Hastimal Hasti

milegā na gulchīñ ko gul kā patā har ik pañkhuḌī yuuñ bikhar jā.egī

ALTAF HUSSAIN HALI

Khudaya aarzoo meri yahi hai Mera noor-e-basirat aam kar de

Hazrat Allama Muhammad Iqbal

Sajdon se tere kya hua sadiyan guzar gayin duniya teri baadal de wo sajda talaash kar

Hazrat Allama Muhammad Iqbal

hazāroñ ḳhvāhisheñ aisī ki har ḳhvāhish pe dam nikle bahut nikle mire armān lekin phir bhī kam nikle

Mirza Galib

Ranjish hī sahī dil hī dukhāne keliye aa aa phir se mujhe chhoḌ ke jaane ke liye aa

Ahmad Faraz

About

The Rang-E-Ghazal

Ghazal happens to be the most popular genre of Urdu poetry. One of the main reasons of its popularity is Ghazals are composed not only in Urdu language but also in almost all Indian languages. Ghazal is an embodiment of composite culture of India. The very spell bound and impressive epoch of Ghazal is that even though some are wholly unaware of Urdu Ghazal and Urdu script enjoy themselves with Ghazal recitation. The Ghazal is so splendid that it adores the heart. The Ghazal recitation by singers to recreate the audience has a great tradition.

Ghazal Books

Dewan-E-Ghalib

Kulluyati-Iqbal

Dewan-E-Hali

कुली कुतुब शाह

पिया के नयन में बहुत छंद है
ओ वू जुल्फ़ में जीव का आनंद है

सजन यूँ मिठाई सूँ बोले बचन
कि उस ख़ुश बचन में लज़त कंद है

मोहन के ओ दो गाल तश्बीह में
सुरज एक दूजा सो जूँ चंद है

नवल मुख सुहे हुस्न का फूलबन
नयन मृग होर जुल्फ़ उस फ़ेद है

ऊ किसवत थे जीव बास महके सदा
तू ऊ बास नारियाँ का दिल – बंद है

पिया कूँ बुला लियाए हूँ अप मंदिर
दुतन मन में उस थे हमन दंद है

नबी सदके ‘कुतबा’ कूँ अप सेज ल्याइ
तो चौंधर खश्याँ होर आनंद है
कुली कुतुब शाह

पिया तुज इश्क़ कूँ देती हूँ सुद-बुद हौर जियो दिल में
हुनूज़ यक होक नई मिलता किसे बोलूँ तू मुश्किल में

ख़ुशी के अँझवाँ सेती भराई समदाराँ सा तो
कि शह के वस्ल की दौलत गिर दुरगंज हासिल में

भँवर काला किया है भेस तेरे मुख कमल के तई
वले इस भँवरे थे तेरे पीरत में हुईं कामिल में

अज़ल थे साईं का दिल होर मेरा दिल के हैं एक
बिछड़ कर क्यूँ रहूँ ऐसे जीवन प्यारे थे यक तिल में

नबी सदके रयन सारी दो तन जूँ शम्अ जलती थी
जो तारे के नमन रही थी ‘कुतुब’ शह चाँद सूँ मिल में
कुली कुतुब शाह

प्यारी के नैनाँ हैं जैसे कटारे
न सम उस के अंगे कोई हैं दो धारे

असर तुज मोहब्बत का जिस कूँ चड़ेगा
तिरे लाल बिन उस कूँ कोई न उतारे

दो लोचन हैं तेरे निसंग चोर रावत
ओ नो सूँ दिलेरी न कर सब ही हारे

सुहाता है तुज कूँ गुमाँ होर ग़रूरी
कि माते अहें तुज हुस्न के प्यारे

सकियाँ में तू है मिर्ग-नैनी छबेली
सजन तू नहीं होते तुज थे किनारे

अजब चपख़लाई है तेरी नयन में
कि खंजन नमन एक तिल कई न ठारे

नबी सदके ‘कुतबा’ सूँ मद पीवे जम- जम
वो चंद मुख कि जिस मुख थे जूती सिंगारे
वली दकनी
किया मुझ इश्क ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता-आहिस्ता,
कि आतिश गुल कूँ करती है गुला ब आहिस्ता-आहिस्ता

वफ़ादारी ने दिलबर की बुझाया आतिश-ए-ग़म कूँ,
कि गर्मी दफ़्अ करता है, गुला ब आहिस्ता-आहिस्ता

अजब कुछ लुत्फ़ रखता है शब-ए-ख़िल्वत में गुलरू सूँ,
खिता ब आहिस्ता-आहिस्ता, जवा ब आहिस्ता-आहिस्ता

मेरे दिल कूँ किया बेख़ुद तेरी अंखियों ने आख़िर कूँ,
कि ज्यूँ बेहोश करती है शरा ब आहिस्ता-आहिस्ता

हुआ तुझ इश्क़ सूँ ऐ आतिशीं रू दिल मिरा पानी,
कि ज्यूँ गलता है आतिश सूँ गुला ब आहिस्ता-आहिस्ता

अदा-ओ-नाज़ सूँ आता है वो रौशन जबीं घर सूँ,
कि ज्यूँ मश्रिक़ सूँ निकले आफ़ता ब आहिस्ता-आहिस्ता

‘वली’ मुझ दिल में आता है ख़याल-ए-यार-ए- बेपरवाह,
कि ज्यूँ अंखियां में आता है ख्व़ा ब आहिस्ता-आहिस्ता
वली मोहम्मद वली दखनी

जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
उसे जिंदगी क्यूँ न भारी लगे

न छोड़े मोहब्बत दम-ए-मर्ग तक
जिसे यार-ए-जानी सूँ यारी लगे

न होवे उसे जग में हरगिज़ क़रार
जिसे इश्क़ की बे-क़रारी लगे

हर इक वक़्त मुझ आशिक़-ए-पाक कूँ
प्यारे तिरी बात प्यारी लगे

‘वली’ कूँ कहे तू अगर यक बचन
रक़ीबाँ के दिल में कटारी लगे
वली मोहम्मद वली

कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है
निगह उस ख़ुश-अदा की ख़ुश-अदा है।

सजन के हुस्न कूँ टुक फ़िक्र सूँ देख
कि ये आईना-ए-मअ’नी-नुमा है।

ये ख़त है जौहर-ए-आईना-राज
इसे मुश्क-ए-ख़तन कहना बजा है

हुआ मालूम तुझ जुल्फ़ाँ सूँ ऐ शोख़
कि शाह-ए-हुस्न पर जिल्ल-ए-हुमा है

न होवे कोहकन क्यूँ आ के आशिक़
जो वो शीरीं अदा गुलगूँ-क़बा है

न पूछो आह-ओ-ज़ारी की हक़ीक़त
अज़ीज़ाँ आशिक़ी का मुक़तज़ा है

‘वली’ कूँ मत मलामत कर ऐ वाइज़
मलामत आशिक़ों पर कब रखा है
वली मोहम्मद वली

ख़ूब – रु ख़ूब काम करते हैं
यक निगह में गुलाम करते हैं

देख ख़ुबाँ कूँ वक़्त मिलने के
किस अदा सूँ सलाम करते हैं

क्या वफ़ादार हैं कि मिलने में
दिल सूँ सब राम-राम करते हैं

कम – निगाही सों देखते हैं वले
काम अपना तमाम करते हैं

खोलते हैं जब अपनी जुल्फ़ाँ कूँ
सुबह-ए-आशिक़ कूँ शाम करते हैं

साहिब – ए – लफ़्ज़ उस कूँ कह सकिए
जिस सूँ ख़ूबाँ कलाम करते हैं

दिल लजाते हैं ऐ ‘वली’ मेरा
सर्व-क़द जब ख़िराम करते हैं
वली मोहम्मद वली

मैं आशिक़ी में तब सूँ अफ़साना हो रहा हूँ
तेरी निगह का जब सूँ दीवाना हो रहा हूँ

ऐ आश्ना करम सूँ यक बार आ दरस दे
तुझ बाज सब जहाँ सूँ बेगाना हो रहा हूँ

बाताँ लगन की मत पूछ ऐ राम – ए- बज़्म-ए-ख़ूबी
मुद्दत से तुझ झलक का परवाना हो रहा हूँ

शायद वो गंज-ए-ख़ूबी आवे किसी तरफ़ सूँ
इस वास्ते सरापा वीराना हो रहा हूँ

सौदा-ए-ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ रखता हूँ दिल में दाइम
ज़ंजीर-ए-आशिक़ी का दीवाना हो रहा हूँ

बरजा है गर सुनूँ नई नासेह तिरी नसीहत
मैं जाम-ए-इश्क़ पी कर मस्ताना हो रहा हूँ

किस सूँ ‘वली’ अपस का अहवाल जा कहूँ मैं
सर – ता – क़दम मैं ग़म सूँ ग़म ख़ाना हो रहा हूँ

खबर-ए-तहय्पुर – ए – इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही
न तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे ख़बरी रही

शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
न ख़िरद की बख़िया गरी रही न जुनूँ की पर्दा -दरी रही

चली सम्त-ए-ग़ैब सीं क्या हवा कि चमन जुहूर का जल गया
मगर एक शाख-ए-निहाल-ए-ग़म जिसे दिल कहो सो हरी रही

वज़र-ए-तग़ाफ़ुल-ए-यार का गिला किस ज़बाँ सीं बयाँ करूँ कि शराब-ए-सद-कदह आरजू खुम-ए-दिल में थी सो भरी रही

वो अजब घड़ी थी मैं जिस घड़ी लिया दर्स नुस्खा-ए-इश्क का
कि किताब अक़्ल की ताक़ पर जूँ धरी थी त्यूँ ही धरी रही

तिरे जोश-ए-हैरत-ए-हुस्न का असर इस क़दर सीं यहाँ हुआ
किन आइने में रही जिला व परी कूँ जल्वागरी रही

किया खाक आतिश-ए-इश्क़ ने दिल-ए-बे-नवा-ए- ‘सिराज’ कूँ
न ख़तर रहा न हज़र रहा मगर एक बे ख़तरी रही
सिराज औरंगाबादी

ख़ाक हूँ ए’तिबार की सौगंद
मुज्तरिब हूँ क़रार की सौगंद

मिस्ल-ए- आईना पाक-बाज़ी में
साफ़ दिल हूँ गुबार की सौगंद

हौज़-ए-कौसर सीं प्यास बुझती नहीं
उस लब-ए-आबदार की सौगंद

मोतबर नहीं जमाल ज़ाहिर का
गर्दिश-ए-रोज़गार की सौगंद

जिंदगी ऐ ‘सिराज ‘ मातम है
मुझ कूँ शम-ए-मज़ार की सौगंद
सिराज औरंगाबादी

ख़ूब बूझा हूँ मैं उस यार कूँ कुइ क्या जाने
इस तरह के बुत-ए-अय्यार कूँ कुइ क्या जाने

ले गई हात सें दिल उस की झुकी हुई आँखें
हीला – ए – मर्दुम-ए- बीमार कूँ कुइ क्या जाने

मैं न बूझा था तिरी जुल्फ़-ए-गिरह-दार के पेच
सच कि कैफ़िय्यत – ए मक्कार कूँ कुइ क्या जाने

शरह-ए-बे-ताबी-ए-दिल नीं है क़लम की ताक़त
तपिश-ए-शौक़ के तूमार कूँ कुइ क्या जाने

शर्बत-ए-ख़ून-ए-जिगर का मज़ा आशिक़ पावे
लज़्ज़त-ए-इश्क़-ए-जिगर ख़ार कूँ कुइ क्या जाने

मशरब-ए-इश्क़ में हैं शैख़-ओ-बरहमन यकसाँ
रिश्ता – ए – सुब्हा-ओ-जुन्नार कूँ कुड़ क्या जाने

नमक- ए-ज़ख़्म आ मरहम-ए-जालीनोसी
ख़लिश-ए-सीना-ए-अफ़गार कूँ कुइ क्या जाने
सिराज औरंगाबादी

किया ग़म ने सरायत बे-निहायत
करूँ किस सीं शिकायत बे-निहायत

हमारे क़त्ल पर मुफ़्ती ने ग़म के निकाला है रिवायत बे-निहायत

तू अपने ग़म्ज़ा-ए-ख़ूनों की ज़ालिम
अबस मत कर हिमायत बे-निहायत

तिरे रुख़ पर हुजूम – ए-ख़ाल-ओ-ख़त नई
कि हैं मुसहफ़ में आयत बे-निहायत

किया है इश्क़ के हादी ने मुझ कूँ मोहब्बत की हिदायत बे-निहायत

शकर – लब ने निगाह-ए-दिलबरी सीं
किया मुझ पर इनायत बे-निहायत

‘सिराज’ अब दास्तान-ए-शौक़ बस कर
कि बेजा है हिकायत बे-निहायत
सिराज औरंगाबादी

कौन कहता है जफ़ा करते हो तुम
शर्त-ए-माशूक्री वफ़ा करते हो तुम

मुस्कुरा कर मोड़ लेते हो भवें
ख़ूब अदा का हक़ अदा करते हो तुम

हम शहीदों पर सितम जीते रहो ख़ूब करते हो बजा करते हो तुम

सुरमई आँखों कूँ क्या सुरमे सीं
काम नाहक़ उन पर तूतिया करते हो तुम

हर पर – ए – बुलबुल कूँ ऐ ख़ूनी – निगाह
ख़ून-ए-गुल सीं कर्बला करते हो तुम

पीसते हो दिल कूँ ज्यूँ बर्ग-ए-हिना
हात ख़ू आलूदा क्या करते हो तुम

ख़ाक करते हो जला जान-ए- ‘सिराज’
और कहो क्या कीमिया करते हो तुम
ख़्वाजा मीर दर्द

मिज़्गान-ए-तर हूँ या रग-ए-ताक-ए-बुरीदा हूँ
जो कुछ कि हूँ सो हूँ गरज आफ़त – रसीदा हूँ

खींचे है दूर आप को मेरी फ़रोतनी
उफ़्तादा हूँ प साया-ए-क़द्द-ए-कशीदा हूँ

हर शाम मिस्ल-ए-शाम हूँ मैं तीरा-रोज़गार
हर सुबह मिस्ल-ए-सुब्ह गरेबाँ दरीदा हूँ

करती हैं बू-ए-गुल तू मिरे साथ इख़्तिलात
पर आह मैं तो मौज-ए- नसीम-ए-दज़ीदा हूँ

तू चाहती है तो तपिश-ए-दिल कि बाद-ए-मर्ग
कुंज-ए-मज़ार में भी न मैं आर्मंदा हूँ

ऐ ‘दर्द’ जा चुका है मिरा काम ज़ब्त से
मैं ग़म-ज़दा तो क़तरा – ए – अश्क-ए-चकीदा हूँ
ख़्वाजा मीर दर्द

मिलाऊँ किस की आँखों से मैं अपनी चश्म-ए-हैराँ को
अयाँ जब हर जगह देखूँ उसी के नाज़-ए-पिन्हाँ को

तुझे ऐ शम्अ क्या देखें ज़माने को दिखाना है
हमें जूँ काग़ज़ – ए – आतिश-ज़दा और ही चराग़ाँ को

न तन्हा कुछ यही अतफ़ाल दुश्मन हैं दिवानों के
भरे है कोह भी देखा तो याँ पत्थरों से दामाँ को

झमकते हैं सितारों की तरह सुराख़ हस्ती के
छुपाया गो कि जूँ ख़ुर्शीद में दाग़-ए- नुमायाँ को

न वाजिब ही कहा जावे न सादिक़ मुमतना उस पर
किया तश्ख़ीस कुछ हम ने न हरगिज़ शख़्स-ए-इम्काँ को
ख़्वाजा मीर दर्द

मिरा जी है जब तक तिरी जुस्तुजू है।
ज़बाँ जब तलक है यही गुफ़्तुगू है

ख़ुदा जाने क्या होगा अंजाम इस का
मैं बे-सब इतना हूँ वो तुंद-ख़ू है

तमन्ना तिरी है अगर है तमन्ना
तिरी आरजू है अगर आरजू है

किया सैर सब हम ने गुलज़ार – ए – दुनिया
गुल-ए-दोस्ती में अजब रंग-ओ-बू है

ग़नीमत है ये दीद व दीद-ए-याराँ
जहाँ आँख मुँद गई न मैं हूँ न तू है

नज़र मेरे दिल की पड़ी ‘दर्द’ किस पर
जिधर देखता हूँ वही रू-ब-रू है
ख़्वाजा मीर दर्द

जग में आ कर इधर उधर देखा
तू ही आया नज़र जिधर देखा

जान से हो गए बदन ख़ाली
जिस तरफ़ तू ने आँख भर देखा

नाला फ़रियाद आह और ज़ारी
आप से हो सका सो कर देखा

उन लबों ने न की मसीहाई
हम ने सौ सौ तरह से मर देखा

ज़ोर आशिक़-मिज़ाज है कोई
‘दर्द’ को क़िस्सा मुख़्तसर देखा

 

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